उत्तराखंड

कांग्रेस के प्रवक्ता एवं मीडिया कॉर्डिनेट शान्ति भट्ट ने राज्य व केन्द्र सरकार पर समान नागरिकता संहिता को लागू करने पर लगाये प्रश्न चिन्ह

टिहरी –  कांग्रेस के प्रवक्ता एवं मिडिया कॉर्डिनेट टिहरी लोक सभा क्षेत्र ने उत्तराखंड सरकार और भारत सरकार पर समान नागरिक संहिता पर प्रश्न चिन्ह लगाकर कहा है कि राज्य सरकार बताए कि समान नागरिक संहिता जरूरी या राजनैतिक मुद्दा है।
शान्ति प्रसाद भट्ट ने कहा है कि UCC पर राज्य और केंद्रीय सरकार ने अभी तक कोई ड्राफ्ट (मसौदा) जनसामान्य के सामने प्रस्तुत नही किया है।
यदि ड्राफ्ट (मसौदा) सरकारें प्रस्तुत करती तो यह पता चल जाता कि सरकार किन किन विषयों पर एकरूपता/समानता चाहती है।

उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित समान नागरिक संहिता प्रारूप समिति जनसुनवाई हेतु दिनाक 11नवम्बर 2022 को नई टिहरी में थी, सम्मानित समिति के समक्ष मैने अपने साथियों के साथ निम्नाकित बिंदुओ पर समिति का ध्यान आकृष्ट किया और सुझाव प्रेषित किए।
🔹आसान नहीं होगा समान नागरिक संहिता लागू करना?
🔹यह समवर्ती सूची (concurrent list ) का विषय है, अर्थात इस विषय पर केन्द्र और राज्य दोनो ही कानून बना सकते है, किंतु जब कभी केन्द्र कानून बनायेगा तो वही अंब्रेला लॉ होगा, तब राज्यों के बने कानून निष्प्रभावी होंगे या विलय हो जाएंगे।
🔹भारत में गोवा राज्य के अलावा कहीं भी यह कानून लागू नहीं है गोवा में भी तब लागू हुआ था जब गोवा भारत का हिस्सा नहीं था (1961)
🔹संविधान के भाग 3 मूलाधिकारो में संशोधन करना आसान नहीं ?क्या संविधान संशोधन माननीय सुप्रीम कोर्ट में वैधानिकता पायेगा ?
🔹अनुच्छेद 368 में संसद को असीमित संशोधन की शक्ति नही है।
भारत के संविधान का भाग 4 नीति निदेशक तत्त्व
(अनुच्छेद 36 से 51) के अनुच्छेद 44में कहा गया कि”राज्य (सरकार) भारत के समस्त राज्यक्षेत्रो में नागरिकों के लिए समान सिविल प्रक्रिया प्राप्त करने का प्रयास करेगी”जबकि अनुच्छेद 37 में ही कहा गया कि इस भाग में अंतर्विष्ट उपबंध किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नही होंगे” अर्थात नीति निदेशक तत्व एक सुझावात्मक है,बाध्यकारी नहीं है।

क्या है समान नागरिक संहिता

“समान नागरिक संहिता/यूनिफॉर्म सिविल कोड को सरल भाषा में समझे तो भारत के हर नागरिक के लिए एक समान कानून हो, चाहे वह किसी भी जाति,धर्म,का हों समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक, दत्तक ग्रहण, संपत्ति आदि में सभी धर्मों के लिए एक समान कानून की परिकल्पना है।
जैसे: दंड प्रक्रिया संहिता 1973, भारतीय दण्ड संहिता 1860, सिविल प्रक्रिया संहिता 1908, और साक्ष्य अधिनियम 1872 सभी पर लागू है, किंतु सिविल लॉ अलग अलग है, चुकीं भारत विविधताओं का देश है, यहा अतीत से ही धर्म पर आधारित पर्सनल लॉ बने हुए है, जैसे हिन्दू पर्सनल लॉ के तहत: हिन्दू दत्तक ग्रहण एवम भरण पोषण अधिनियम 1956, हिन्दू विवाह अधिनियम 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956,(संशोधित 2005) आदि वैसे ही मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी अनेकों निजी कानून है, जिनमे कुछ कोडीफाइड नहीं है।
समान नागरिक संहिता लागू करने से पहले सभी पर्शनल लॉ को संशोधित या समाप्त करना होगा।
◾भाग 3 मूलाधिकार (अनुच्छेद 12से 35तक) जो आधारभूत ढांचे है,इसमें कैसे संशोधन होगा?

चुकीं संविधान के भाग चार को भारत का अधिकार पत्र(Magna Carta) भी कहा जाता है ।
भारतीय संविधान के भाग 3 में मूलाधिकार (अनुच्छेद 12से35 तक) में प्रदत्त अधिकार, नागरिकों के मूलाधिकार है, इन्हे अनुच्छेद 368 के तहत ही संसद द्वारा बहुमत से संशोधित तो किया जा सकता है, किंतु मूलाधिकार संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है, इसे बदले या छेड़छाड़ किए बिना संसद कोई कानून बना सकती है ।
मेनकागांधी बनाम भारतसंघ (1979)
एमनागराज बनाम भारतसंघ AIR 2007
के प्रमुख वादों में तथा गोलकनाथ बनाम भारतसंघ AIR 1971 के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने शंकरीप्रसाद और सजन सिंह के मामलो में दिए अपने ही निर्णयों को पलटते हुए कहा कि “अनुच्छेद 368के अधीन संसद संविधान में संधोधन करने की शक्ति का प्रयोग करके मूल अधिकारों को नहीं छीन सकता है” तो फिर अनुच्छेद 14, 25से 28 में कैसे संशोधन होगा ?इसी प्रकार केशवानन्दभारती बनाम भारतसंघ AIR 1974 में भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि”अनुच्छेद 368 के अधीन संसद की संशोधन की शक्ति विस्तृत है, किंतु असीमित नही है, संसद इस शक्ति का प्रयोग करके संविधान के आधारभूत ढांचे(Basic features) में परिवर्तित नहीं कर सकती है”
🔹यधपि संसद ने पुनः अनुच्छेद 368 में एक नया खंड जोड़कर यह स्पष्ट किया कि संसद की संशोधन शक्ति सर्वोच है ,और उस पर कोई परिसीमा नही लगाई जा सकती है, और किसी भी न्यायालय में चुनौती नही दी जा सकती है, किंतु माननीय उच्चतम न्यायालय ने मिनर्वामिल बनाम भारतसंघ के प्रमुख वाद में अनुच्छेद 368 के लिए किए गए 42 वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए खंड (4) और खंड (5) को इस आधार पर असंवेधानिक घोषित कर दिया कि वे आधार भूत ढांचे को नष्ट करते है ।
◾राज्य को समान नागरिक संहिता लागू करने का अधिकार तो है, पर केवल राज्य ही क्यों केन्द्र सरकार क्यों बच रही समान नागरिक संहिता कानून लाने से?
🔹भारत के संविधान को एक संघीय संविधान कहा जाता
है,इसलिए 7वीं अनुसूची में कार्यों का बंटवारा है:
🔹1: संघ सूची (Union catalog) में 100विषय आते है,
🔹2: राज्य सूची (state list) में 61विषय आते है,
🔹3: समवर्ती सूची (concurrent list) में 52विषय आते है,
◾समान नागरिक संहिता का विषय राज्य और केन्द्र दोनो का है, इसलिए इस पर केंद्रीय कानून क्यो नही बनता?
◾उत्तराखंड में सरकार द्वारा गठित समान नागरिक संहिता प्रारूप समिति को अपना ड्राफ्ट/संस्तुति तैयार करते समय माननीय सुप्रीम कोर्ट के लीडिंग केशो को भी देखना होगा, जैसे: विशाखा बनाम राजस्थान राज्य 1997, साथ ही भरण पोषण, समलैंगिकता, लिव इन रिलेशनशिप, बहुविवाह,महिलाओं को सम्पत्ति के अधिकार, बालक बालिकाओं की वयस्कता/शादी की उम्र सीमा , और विभिन्न सेंटर एक्ट् को भी ध्यान में रखना होगा ।
अतः सरकार को चाहिए कि वे सभी हितधारको को भरोसे में लिए बिना समान नागरिक संहिता को थोपे नहीं, यदि समाज के सभी वर्ग/हितधारक स्वीकार करे तो ही इसे अपनाए, यह स्वैच्छिक होना चाहिए अनिवार्य नहीं, जबरन थोपने से देश का ताना बाना बिगड़ सकता है, और न्यायालयो में वादों की संख्या घटेगी नही अपितु बढ़ेगी, अनेकों कानूनों को संसद द्वारा रद्द करना होगा, या उनमें आमूल चूल परिवर्तन करना होगा, यह एक जटिल कार्य है, इसमें हमारे संविधान की उद्देशिका के मूलभूत सिद्धांत प्रभुत्तसम्पन्न, लोकतंत्रात्मक, पंथ निरपेक्ष, समाजवाद, अखंडता, न्याय, स्वतंत्रता, बंधुत्व, समानता, आदि को ठेस पहुंच सकती है।
◾यह विषय को राजनीति के लाभ हानि से हटकर सर्वदलीय, सर्वपक्षीय , विधि के जानकारों समाज के प्रबुद्ध नागरिको से विमर्श के बाद लोक सभा, राज्य सभा में परिचर्चा के बाद ही लाया जाय। ताकि संपूर्ण देश में एक जैसा लागू हो सके, राज्यों में केवल समय की बर्बादी और समाजिक ताने बाने में उथल पुथल मचा कर सौहार्द बिगड़ने और विधि के शासन की भावना को ठेस पहुंचाने जैसा ही है ।

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