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आरक्षण की आग में जलता महाराष्ट्र

अजीत द्विवेदी
लोकसभा चुनावों से पहले महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की आग लगी है। मराठा नेता मरोज जरांगे पाटिल शुक्रवार यानी 27 अक्टूबर से भूख हड़ताल पर हैं। इससे पहले भी वे 40 दिन तक भूख हड़ताल पर थे और सरकार के आश्वासन के बाद उन्होंने आंदोलन खत्म कर दिया था। उस समय आंदोलन मोटे तौर पर शांतिपूर्ण रहा था। लेकिन आरक्षण आंदोलन का दूसरा चरण बेहद हिंसक हो गया है। मंगलवार यानी 31 अक्टूबर को एक दिन में नौ लोगों ने आरक्षण के समर्थन में आत्महत्या की। पिछले दो हफ्ते में 26 लोग आत्महत्या कर चुके हैं। इससे पहले 1990 में मंडल आयोग की सिफारिश लागू करने के खिलाफ हुए आंदोलन में ही इससे ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। इस लिहाज से यह सबसे भयावह और हिंसक आरक्षण आंदोलन बन गया है। इस आंदोलन के कई पहलू हैं और सबको समझे बगैर न तो इसको पूर्णता में समझा जा सकता है और न इसके राजनीतिक असर का अंदाजा लगाया जा सकता है।

ध्यान रहे यह आंदोलन सामाजिक व आर्थिक रूप से राज्य की सबसे मजबूत जाति कर रही है। इस लिहाज से इसकी तुलना गुजरात के पाटीदार अनामत आंदोलन से कर सकते हैं, जिससे हार्दिक पटेल नेता बन कर उभरे थे। उस समय तक हार्दिक एक अनाम चेहरा थे, जैसे कुछ समय पहले तक मनोज जरांगे पाटिल थे। हरियाणा में जाटों को आरक्षण देने का आंदोलन हो या राजस्थान में गुर्जरों को एसटी में शामिल करने का आंदोलन हो। ये सब एक किस्म के आंदोलन है, जिसमें राज्यों की सबसे मजबूत जातियां शामिल हुईं। अगर इन जातियों की आर्थिक, सामाजिक व शैक्षणिक स्थिति को बारीकी से देखें तो इनकी स्थिति पिछड़ेपन वाली नहीं है। संविधान निर्माण के समय अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जैसी स्थिति थी या मंडल आयोग का गठन करते समय जैसी स्थिति व्यापक पिछड़े समाज की थी उससे बेहतर स्थिति मौजूदा समय में इन जातियों की है। आर्थिक स्थिति को अगर दरकिनार करें तो सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन अपेक्षाकृत कम है। इसलिए मोटे तौर मराठा, पाटीदार, जाट और गुर्जर का आंदोलन राजनीतिक रहा है।

इसी वजह से महाराष्ट्र के मराठा आरक्षण आंदोलन को राजनीतिक नजरिए से देखने की जरूरत है। यह विडम्बना है कि अरसे पहले कुनबी जाति के लोग ओबीसी की श्रेणी से बाहर हुए थे। वे पिछड़ा श्रेणी से बाहर निकल कर खुश हुए थे और ऐसा अलग अलग राज्यों में कई जातियों के साथ हुआ था। समाजशास्त्री इसे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया बताते थे। इसका मतलब हर पिछड़ी जाति में श्रेष्ठ होने का भाव होना है। लेकिन अब समय का चक्र ऐसा घूम रहा है कि हर जाति पिछड़ी या अनुसूचित जाति, जनजाति में शामिल होना चाहती है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया उलटी चल रही है। इसी प्रक्रिया के तहत मराठा समुदाय कुनबी बनना चाहता है। गौरतलब है कि कुनबी महाराष्ट्र की एक पिछड़ी जाति है। मराठा आरक्षण का आंदोलन कर रहे नेता चाहते हैं कि सभी मराठों को कुनबी का सर्टिफिकेट दिया जाए, जबकि राज्य सरकार कह चुकी है कि सबको कुनबी का सर्टिफिकेट देना मुश्किल है। इस बारे में कहा गया था कि हैदराबाद के निजाम के राज में जिन लोगों के पास कुनबी का सर्टिफिकेट था उनको कुनबी मान लिया जाएगा। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। तभी मनोज जरांगे बिना किसी शर्त के सभी मराठों को कुनबी में शामिल करना चाहते हैं।

इस मांग की वजह से यह पूरा विवाद मराठ बनाम ओबीसी में तब्दील हो गया है। राज्य में ओबीसी आरक्षण 19 फीसदी है और ओबीसी जातियों के संघों का मानना है कि अगर मराठों को कुनबी बना दिया जाता है तो ओबीसी के 19 फीसदी आरक्षण में से ही उनको भी हिस्सा मिलेगा। चूंकि मराठे सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से ज्यादा संपन्न हैं इसलिए वे आरक्षण का ज्यादा लाभ ले जाएंगे। इस आधार पर ओबीसी महासंघ मराठों को कुनबी का सर्टिफिकेट दिए जाने का विरोध कर रहा है। एक अनुमान के मुताबिक महाराष्ट्र में ओबीसी और मराठा वोट लगभग बराबर है। इसलिए कोई भी पार्टी एक समूह को आकर्षित करने के लिए दूसरे समूह को नाराज नहीं कर सकती है। ध्यान रहे भाजपा ने अपनी शुरुआती राजनीति में ओबीसी को ज्यादा तरजीह दी थी। उसके ज्यादातर नेता या तो ब्राह्मण थे या पिछड़ी जाति के थे।

अपनी इस कमजोरी की वजह से ही भाजपा ने एनसीपी के अजित पवार को इतनी तरजीह दी। उसे उम्मीद थी कि अजित पवार की वजह से मराठा वोट उसके साथ जुड़ेगा। लेकिन उससे पहले ही यह नया विवाद शुरू हो गया। यह विवाद जल्दी नहीं सुलझने वाला है। राज्य की राजनीति पर इसका बड़ा असर होगा। इस समय जो हालात बन गए हैं उसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि किसी खास पार्टी को इसका फायदा होगा या किसी खास पार्टी को इसका नुकसान होगा। उलटे महाराष्ट्र की राजनीति और विभाजित हो सकती है। राज्य की दो बड़ी प्रादेशिक पार्टियां- शिव सेना और एनसीपी में विभाजन हो गया है और एक तरह से इन दो की चार पार्टियां बन गई हैं। इन चार के अलावा भाजपा और कांग्रेस दो बड़ी पार्टियां हैं। ये छह पार्टियां ओबीसी या मराठा का पक्ष लेकर राजनीति नहीं कर सकती हैं।

इनको दोनों के बीच संतुलन बनाना होगा। भाजपा और कांग्रेस के लिए ज्यादा दुविधा है क्योंकि दोनों महाराष्ट्र के बाहर बाकी राज्यों में ओबीसी वोट हासिल करने की जी-तोड़ मेहनत कर रही हैं। तभी इस बात की भी संभावना है कि जाति आधारित नई पार्टियां बनें, जैसे बिहार, उत्तर प्रदेश या तमिलनाडु आदि राज्यों में बनी हैं। इससे राजनीति और अस्थिरता की ओर बढ़ेगी। ध्यान रहे महाराष्ट्र में पिछले करीब 30 साल से गठबंधन की सरकारें चल रही हैं।

इसका एक पहलू यह है कि आरक्षण आंदोलन ने राज्य में पिछले एक साल से स्थापित हो रहा नैरेटिव पूरी तरह से बदल दिया है। जब से शिव सेना टूटी तब से ऐसा लग रहा था कि उद्धव ठाकरे गुट के प्रति सहानुभूति है। फिर एनसीपी टूटी तो शरद पवार गुट के प्रति सहानुभूति बनी। लेकिन अब यह नैरेटिव बदल गया है। अब आरक्षण मुख्य मुद्दा है। तभी कहा जा रहा है कि भाजपा को इसका फायदा हो सकता है। सीधे तौर पर इस आंदोलन के पीछे भाजपा की भूमिका नहीं बताई जा रही है लेकिन सबको पता है कि मनोज जरांगे पाटिल के आंदोलन पर जालना में लाठी चली उसके बाद ही यह आंदोलन सबकी नजर में आया और इसका दायरा बढ़ा। लेकिन उसके बाद जिस तरह से आंदोलन में हिंसा भडक़ी है उससे लगता है कि अब यह किसी पार्टी के हाथ में नहीं रह गया है। इसलिए सभी पार्टियों को साझा तौर पर इसका समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए।

ध्यान रहे पहले एक समुदाय के रूप में मराठों को अलग से आरक्षण देने का फैसला हुआ था लेकिन उसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। उसके बाद से ही मराठों को कुनबी बना कर ओबीसी में शामिल करने की मांग हो रही है।
ऐसी स्थिति में एक रास्ता तो यह है कि ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ा दी जाए। सबको पता है कि आरक्षण की सीमा को लेकर इंदिरा साहनी केस में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बाधा नहीं रह गई है। केंद्र सरकार ने जब आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का कानून बनाया तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च अदालत ने इस पर सुनवाई करते हुए कहा कि सरकार जरूरत के हिसाब से आरक्षण की 50 फीसदी की अधिकतम सीमा को पार कर सकती है।

तभी छत्तीसगढ़ और झारखंड में विधानसभा से प्रस्ताव पास कर राज्य सरकारों ने आरक्षण की सीमा 77 फीसदी तक बढ़ाई है। हालांकि राज्यपाल के यहां से उनके कानूनों को मंजूरी नहीं मिली है। बिहार में जाति गणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने की तैयारी हो रही है। सो, महाराष्ट्र सरकार के पास ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाने का रास्ता है। हालांकि इसमें भी कुनबी और अन्य पिछड़ी जातियां इस आधार पर विरोध करेंगी कि मराठे ज्यादा सक्षम हैं तो आरक्षण का ज्यादा लाभ उनको मिलेगा। इसके लिए सरकार जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए जातियों का वर्गीकरण कर सकती है और आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था कर सकती है।

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