उत्तराखंड

उत्तरकाशी के रौंतल गाँव में पैदा हुए थे कई भड़

सेम मुखेम नाजराज देवता का ढोल आज भी इसी गाँव से जाता है

ग्रामीणों ने गाँव को पर्यटक के रूप में विकसित करने की मांग

उत्तरकाशी। जनपद उत्तरकाशी से लगभग 40 किलोमीटर की दुराई पर बसा है एक गाँव जो अपनी गाथा को बयां कर रहा है ।रौंतल ( गमरी ) गाँव में आजकल श्रीकेदार नरसिंह देवता महाराज के पुराने मंदिर के स्थान पर एक भव्य आधुनिक मंदिर बनाने के लिए गांव के जागरूक नागरिकों , बुद्धि जीवियों ,युवाओं और व्यवसायियों द्वारा बैठके , विचार गोष्ठी , चिंतन मनन, रणनीति , प्लानिंग आदि का आयोजन चल रहा है यह बहुत ही सराहनीय कदम है इससे यह पता चलता है कि गांव वाले तमाम बुद्धिजीवी जागरूक नागरिक आपस में बैठकर गांव के विकास के प्रति जागरूक हैं उत्सुक हैं और उनके मन में कुछ करने की तमन्ना जागी है । कितना आनंद मिलता है मन को कितना सुकून मिलता है जब गांव के लोग एक स्थान पर बैठकर चिंतन ,मनन करते हैं वहीं पर उनका भोजन बन रहा है देवस्थल पर ही पूजा अर्चना भी हो रही है और देव कार्य की बात चलती है। देवस्थान पर बैठकर वैसे ही असीम शांति का एहसास अनायास ही हो जाता है
रौंतल एक ऐतिहासिक गांव है यहां पूर्व में बड़े-बड़े शूरवीर और भड पैदा हुए हैं जिनकी गाथाएं वहां के बुजुर्ग सुनाया करते हैं। इसका प्रमाण यह भी है‌ कि रौंतल के श्रद्धालुओं को सेम मुखेम नागराज मंदिर दर्शन की विशेष व्यवस्था चली आ रही है और रौंतल में ही नागराजा का एक मात्र पौराणिक ढोल है केवल उसे ही बहु चर्चित सेम मुखेम सेम नागराजा यात्रा में ले जाने की परम्परागत अनुमति सैकड़ो वर्ष पूर्व से पूरे राज्य में प्रचलित और चर्चा का विषय रही है और आज भी यह प्रथा यथावत् बरकरार है।

लेकिन 70 के दशक से ही इस गांव ने पलायन की विभीषिका झेली है अन्यथा यह गांव एक समय टिहरी ,उत्तरकाशी क्षेत्र का सबसे बड़ा गांव हुआ करता था इस गांव में प्राचीन संस्कृति जैसे पांडव लीला , वैशाख के थौलू, मेले और रामलीला आदि कार्यक्रम सतत चलते रहते हैं । पचास साल पहले इस गांव के कुछ परिवार रायवाला हरिद्वार में जाकर बस गया गये उसके बाद जो लोग जहां रोजगार के लिए गए वहीं के वासी होते गये।बहुत से परिवार अंबाला ,दिल्ली ,चंडीगढ़ कई शहरों में बस गए और देहरादून में तो आज के समय में रौंतल गांव के 100 परिवारो से ज्यादा स्थाई रूप से निवास कर रहे हैं फिर भी गांव में अभी भी लगभग 400 परिवार स्थाई रूप में निवास करते हैं ।

रौतल गांव को ब्रह्मपुरी भी कहा जाता है और इस गांव का नाम रौतल इसलिए पड़ा है कि यह गंगा घाटी में सबसे ऊंचे स्थान पर ऐसी जगह स्थित है यह रौंत्याला – रौनक है यहां प्रातः उठकर सबसे पहले गंगा माता के दर्शन होते हैं फिर सामने हिमालय का हिमाछादित सुभ्रभाल दिखाई देता है तथा मसूरी तक तमाम इलाके के गांव साफ दिखाई पड़ते हैं ।
रौंतल गांव में देवी देवताओं के मंदिरों की एक पूरी श्रृखला है इन सभी मंदिरों का एक कोरिडोर धार्मिक पर्यटन स्थल विकसित किया जाना अपेक्षित है एक ओर केदार नरसिंह, नागराज के मंदिर है तो दूसरी ओर नरसिंह देवता ज्वाला देवी के मंदिर है देवैंच राजराजेश्वरी का भव्य मंदिर है अन्य भी कई देवी देवता के पूजने के स्थान है गांव के बीच में माता दुर्गाभवानी का मंदिर और चौक है ।

जिसमें पाांडव लीला तथा देवी देवताओं के थौलू, आक्षरी मातरी का औतार ,खणद्वारी की डोली का अलौकिक नृत्य का आयोजन समय समय पर होता रहता है और इसी चौक से प्रातः देवताओं की नौवत और शायं काल धूप दीप के समय धुयांल के ढोल बजते हैं जो घाटी के गंगा आर पार के सैकडों गांवों-कस्बों में सुने जाते हैं शीत ऋतु में सबसे पहली बर्फवारी रौंतल के इन्हीं मंदिरों के शिखर चांदनी की तरह सफेद चादर से आछादित हो जाती है । ग्रामीण चाहते हैं कि इस गाँव को भविष्य में धार्मिक पर्यटन के रूप विकसित किया जाय ,यह गाँव अपने में ही एक विशेष आकर्षण का केन्द्र है ।

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